खंडेलवाल के रूप में भाजपा को मिला नया 'रणवीर' — क्या अब खत्म होगी सत्ता-संगठन की खींचतान?
*नीरज द्विवेदी, वाघेला एक्सप्रेस, इंदौर*
लगभग 10 महीने के राजनीतिक असमंजस के बाद मध्य प्रदेश भाजपा को आखिरकार नया प्रदेश अध्यक्ष मिल गया है — हेमंत विजय खंडेलवाल। मथुरा में जन्मे, बैतूल से सांसद रहे और अब विधायक खंडेलवाल का नाम संगठन और संघ दोनों के लिए सहज स्वीकार्य माना जा रहा है। लेकिन असली सवाल यह है — क्या अब भाजपा में वह समन्वय लौटेगा जिसकी कमी बीते महीनों में साफ झलक रही थी?
*पार्टी और सरकार में टकराव की पटकथा*
भाजपा की पुरानी ताकत रही है — संगठन और सत्ता का गहरा तालमेल। लेकिन पिछले कुछ महीनों में ये रिश्ते 'दुर्योधन-द्रौपदी' संवाद जैसे कटु हो चले थे।
पूर्व अध्यक्ष पर यह आरोप लगातार लगते रहे कि वे ज़मीनी कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हैं और सरकार की नीतियों से उनका संवाद कमजोर हो गया है।
सत्ता में बैठे नेताओं और संगठन के बीच संवादहीनता की खाई दिन-ब-दिन गहराती गई, जिसका असर बूथ स्तर तक महसूस किया गया। मंत्रियों के दौरों में संगठन की उपेक्षा हो रही थी, और संगठन के निर्णयों को सरकार गंभीरता से नहीं ले रही थी।
*खंडेलवाल — संघ की पसंद, सरकार की सहमति*
खंडेलवाल को संघ का पूर्ण समर्थन प्राप्त है। वरिष्ठ प्रचारक सुरेश सोनी के साथ उनके संबंध जगजाहिर हैं। माना जा रहा है कि उन्हें मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की सहमति से ही नियुक्त किया गया है। इस नई जोड़ी को भाजपा में "कृष्ण और अर्जुन" की तरह देखा जा रहा है — एक नीति-निर्माता, दूसरा रणभूमि का योद्धा।
*महाभारत की झलक — सत्ता बनाम संगठन*
बीते दौर में पार्टी में जो हालात बने, वे महाभारत के कुरुक्षेत्र की तरह दिखे, जहां एक ही कुल के योद्धा अलग-अलग धड़ों में बंटे नजर आए।
जहां सत्ता पक्ष भीष्म की तरह नीतियों में स्थिर दिखा, वहीं संगठन के कुछ हिस्से शकुनी की चालों की तरह आपसी प्रतिस्पर्धा में उलझे रहे।
अब सवाल है — क्या खंडेलवाल की नियुक्ति से यह महाभारत समाप्त होगी?
या फिर यह केवल 'शांतिवचन' है जो रण से पहले आते हैं?
*खंडेलवाल की सबसे बड़ी चुनौती*
‘आयातित’ भाजपा नेता खंडेलवाल के सामने जो सबसे गंभीर चुनौती है, वह है भाजपा में शामिल हुए पूर्व कांग्रेसी नेता। ये वे नेता हैं जो भले ही शरीर से अब भाजपा में हों, लेकिन मन और मूल विचारधारा से अब भी कांग्रेसी सोच के पोषक हैं। इनका प्रभाव इतना बढ़ गया है कि पार्टी के बड़े निर्णयों में अक्सर विरोधाभास पैदा होने लगा है।
पहली बार ऐसा हो रहा है कि भाजपा जैसे विचारप्रधान दल को "बड़े चेहरे" और "प्रभावशाली दलबदलुओं" की बातों को मजबूरी में तवज्जो देनी पड़ रही है।
राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि जब तक पार्टी इस विचारधारा की दुविधा से खुद को मुक्त नहीं करती, तब तक वह अपने अतीत के स्वर्णिम युग की वापसी का सपना नहीं देख सकती।
*राजनीतिक विश्लेषकों की राय*
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि “यह नियुक्ति एक राजनीतिक उपचार है, जिसमें भाजपा ने समन्वय की सर्जरी करने का प्रयास किया है।” युवा कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि “खंडेलवाल जमीनी कार्यकर्ता को सुनने वाले नेता हैं — इससे पार्टी में नवप्राण का संचार होगा।”
भाजपा में नया अध्यक्ष आना केवल एक पद परिवर्तन नहीं है — यह एक संकेत है संगठन में फिर से तालमेल बनाने की इच्छा का।
अब देखना होगा कि क्या 'कृष्ण-अर्जुन' की यह जोड़ी वास्तव में 'संगठन और सत्ता' को एक रथ पर बैठाकर जीत की ओर ले जा पाती है या नहीं।
*क्या यह जोड़ी भाजपा को 2028 में फिर सत्ता दिला पाएगी? देखना रोचक होगा ।*
0 Comments